Saturday, November 10, 2012

मैं बेटी हूँ !
पर मैं तो बेटी हूँ ...
ना मैंने कभी जिद की,
ना ही मेरी जिदें पूरी हुई...
जिद थी जीने की,
जिद थी पढ़ने की...
जिद थी लड़कों के बराबर माने जाने की !
भाई तो करे मस्ती खूब,
मैं तो करती चूल्हा-चाकी..
वो करता सबको तंग,
मैं करती दुलार सभी का..
पर मैं तो बेटी हूँ ...
भाई पढ़ा अच्छी स्कूल में,
पर मैं तो थी सरकारी !
वहां पढ़ी,
बनी अबला से सबला...
दूरियां बनी बाधा...
गांव से बाहर ना जा पाई..
बहुत हुई सरकारी,
अब तो होना था परायी !
ना मैंने जाना,
ना थी पूछने की इजाजत..
कौन होगा वो घर का नया धणी..
चाहे हो वो गंजा,
चाहे हो वो छैला चाहे हो दूज-बर..
मुझे तो था बस बनना धण...
ना उमंग ना आशा ...
जैसा हो नया घर !
दहेज के ताने,
गरीबी ही जाने ...
किसी को जलना तो किसी को पिटना होता है...
दहेज लोभियों की जिल्लतें सहते ही सहते,
रोते रोते मर जाना होता है..
हाँ मैं तो बेटी हूँ ...
पेट में बच्चा होने का अंदाज
सुहाना होता है....
बेटी हो या बेटा...
माँ को तो माँ रहना है ..
जमाने को चाहिये बेटा,
बेटी हो दफनाना है :(
इसी कशिश में इसी तड़प में एक
माँ को भी तो मर जाना है...
गर्भपात हो या भ्रूण-हत्या ... भ्रूण के
साथ एक माँ भी मरती है !
बेटी होना कितना भी बुरा हो .. पर मैं
तो बेटी हूँ ...
घर में जन्मी हूँ घर में मरूंगी ..
घर बदलेगा ...
माँ और बेटी नहीं बदलेगी !
जन्म से विवाह तक दिन-रात मैंने अपने
बाबुल के घर को सींचा है !
विवाह से मृत्यु तक ससुराल का हर मान
निभाया है !
फिर भी बेटी की हत्या की जाती है !
बेटी होगी तभी तो बहु, माँ, बहन
होगी...
अगर चलता रहा ऐसे ही..
पृकृति खुद लेगी बदला ..
तैयार रहे...
बेटी ने घर को केवल सींचा है, समझा है
चलाया है !
आदमी करै चौधर झूटी, लुगाई चलावै घर !
** एक बेटी का खत दुनिया के नाम !!!

No comments:

Post a Comment